ये इश्क का अजगर ,निगल गया लाखों ,
मगर , कमी न आयी , कहीं दीवानों मे !
बिन जले समझा है ,न कोई समझेगा ,
कैसा जनून है , मरने का परवानो मे !
अजब ये आग है ठंडी, धुआं नहीं करती ,
मज़ा आता है बस , जलने जलाने मे !
बीमारे इशक को, दरवेश कहूं या दीवाना ,
शिवरी को उम्र लगी , बेर खिलाने मे !
कहीं 'शिव' को लगाता है, रोग विरहा का ,
सयाही दर्द की, भरता है कलमदानों मे !
कच्चे घड़े की , कश्ती पे तेरता है कहीं,
दफ़न होता है कहीं , रेत के तूफानों मे !
'कुरालीया' बस, इतना ही समझ पाया ,
मिटता रहा है , महबूब को मनाने मे !
मगर , कमी न आयी , कहीं दीवानों मे !
बिन जले समझा है ,न कोई समझेगा ,
कैसा जनून है , मरने का परवानो मे !
अजब ये आग है ठंडी, धुआं नहीं करती ,
मज़ा आता है बस , जलने जलाने मे !
बीमारे इशक को, दरवेश कहूं या दीवाना ,
शिवरी को उम्र लगी , बेर खिलाने मे !
कहीं 'शिव' को लगाता है, रोग विरहा का ,
सयाही दर्द की, भरता है कलमदानों मे !
कच्चे घड़े की , कश्ती पे तेरता है कहीं,
दफ़न होता है कहीं , रेत के तूफानों मे !
'कुरालीया' बस, इतना ही समझ पाया ,
मिटता रहा है , महबूब को मनाने मे !
3 comments:
कच्चे घड़े की , कश्ती पे तेरता है कहीं,
दफ़न होता है कहीं , रेत के तूफानों मे !
-बेहतरीन शेर निकाले हैं.
उम्दा गज़ल
कहीं शिव को लगाता है रोग बिरहा का ,
स्याही दर्द की भरता है कलम दानो में.....!!!!
वाह..वाह.. कुरालिया जी ! वाह...
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