Tuesday, January 19, 2010

ग़ज़ल




ये इश्क का अजगर ,निगल गया लाखों ,
मगर , कमी न आयी , कहीं दीवानों मे !

बिन जले समझा है ,न कोई समझेगा ,
कैसा जनून है , मरने का परवानो मे !

अजब ये आग है ठंडी, धुआं नहीं करती ,
मज़ा आता है बस , जलने जलाने मे !

बीमारे इशक को, दरवेश कहूं या दीवाना ,
शिवरी को उम्र लगी , बेर खिलाने मे !

कहीं 'शिव' को लगाता है, रोग विरहा का ,
सयाही दर्द की, भरता है कलमदानों मे !


कच्चे घड़े की , कश्ती पे तेरता है कहीं,
दफ़न होता है कहीं , रेत के तूफानों मे !

'कुरालीया' बस, इतना ही समझ पाया ,
मिटता रहा है , महबूब को मनाने मे !

3 comments:

Udan Tashtari said...

कच्चे घड़े की , कश्ती पे तेरता है कहीं,
दफ़न होता है कहीं , रेत के तूफानों मे !

-बेहतरीन शेर निकाले हैं.

अजय कुमार said...

उम्दा गज़ल

AKHRAN DA VANZARA said...

कहीं शिव को लगाता है रोग बिरहा का ,
स्याही दर्द की भरता है कलम दानो में.....!!!!
वाह..वाह.. कुरालिया जी ! वाह...