Friday, January 15, 2010

ग़ज़ल


शायद कोई, दोस्त मिल जाये कहीं ,
रकीबों से भी, हाथ मिलाने लगा हूँ !

गुलों की चाल से , वाकिफ हूँ अब ,
गुलदानों में , कांटे सजाने लगा हूँ !

हर सवाल पे ,खामोश मुस्कुराता हूँ !
ढंग दुनियां का , आजमाने लगा हूँ !

दिल के धोखे , मैं अब नहीं खाता ,
हर एक चोट पे , गुनगुनाने लगा हूँ !

फरेब आखिर , सिखा दिया मुझको ,
अश्कों को , तिनका बताने लगा हूँ !









3 comments:

Udan Tashtari said...

उम्दा ख्याल!!

निर्मला कपिला said...

संजीव जी सही मे आपकी रचनायें दिल को छू लेती हैं। कमाल के भाव हैं इन पंम्क्तियों मे। बहुत दिन से आप और वर्मा जी नज़र नहीं आ रहे क्या बात है। बहुत बहुत शुभकामनायें

हरकीरत ' हीर' said...

Sanjiv ji bas yun hi gungunate rahiye .....!!