शायद कोई, दोस्त मिल जाये कहीं ,
रकीबों से भी, हाथ मिलाने लगा हूँ !
गुलों की चाल से , वाकिफ हूँ अब ,
गुलदानों में , कांटे सजाने लगा हूँ !
हर सवाल पे ,खामोश मुस्कुराता हूँ !
ढंग दुनियां का , आजमाने लगा हूँ !
दिल के धोखे , मैं अब नहीं खाता ,
हर एक चोट पे , गुनगुनाने लगा हूँ !
फरेब आखिर , सिखा दिया मुझको ,
अश्कों को , तिनका बताने लगा हूँ !
3 comments:
उम्दा ख्याल!!
संजीव जी सही मे आपकी रचनायें दिल को छू लेती हैं। कमाल के भाव हैं इन पंम्क्तियों मे। बहुत दिन से आप और वर्मा जी नज़र नहीं आ रहे क्या बात है। बहुत बहुत शुभकामनायें
Sanjiv ji bas yun hi gungunate rahiye .....!!
Post a Comment