Tuesday, December 29, 2009

जिन्दगी










इस तरह शर्तों पे कैसे, कब तक कटेगी जिन्दगी !
गिर के यूँ कब तक , संभलती रहेगी जिन्दगी !

अपने अपने गरूर की, सीमा पे खड़े हुए हैं हम
बीच मैं गहरी है खाई , गिर कर रहेगी जिन्दगी

तनहाइयों के शोर में सिमटे हुए हर शख्स को ,
यूँ ठहाकों के कफ़न से ,कब तक ढकेगी जिन्दगी !

प्यार दे कर प्यार लेना , गर हुनर ये सीख लें ,
ना कोई बेगाना रहेगा ,ना बे मानी रहेगी जिन्दगी !

2 comments:

अजय कुमार said...

जिंदगी पर एक अच्छी रचना , बधाई

निर्मला कपिला said...

पने अपने गरूर ------- बहुत ही सुन्दर ह। ज़िन्दगी के रंग सुन्दर शब्दों से व नई उपमाओं से सजाये संवारे हैं। बहुत बहुत बधाई और नये साल की शुभमानायें