अपनी सूरत मैं तेरी, सूरत नज़र आती है !
आईना धुंधलाता है,आँख छलक आती है !रात को पेट पे, लेटते हुए ही सो जाना,
कभी वो, पीठ की सवारी याद आती है !
हर बात मैं, बस रंग तेरा ही तलाशता हूँ
हर आदत मैं, तेरी आदत झलक जाती है !
तेरे होते, किसी दोस्त की कमीं ना थी,
दोस्ती हर दोस्त की, तंग नज़र आती है !
शाख से टूटे, किसी पत्ते को सहला लेता हूँ,
रूह जब भी ,तेरी याद में विल्विलाती है !
पलंग बजा कर , वो धीरे से गजल गाना ,
आवाज़ आज भी, कानों को छू जाती है !
खाली जेब से , भर कर मुट्ठी निकालना ,
आज इतनी है, दौलत, गिनीं ना जाती है !
सब्र से बढ़ कर, नहीं दौलत कोइ ज़माने मैं ,
आज भी बाद तेरे, ये बात काम आती है !
श्री 'संत 'के संग राम हो तो क्या कहना ,
हरेक सांस मैं, इक आह सी भर आती है !
'संजीव कुरालिया'
4 comments:
हर बेटे को अपने पिता से क्या मिला वो बता नहीं सकता पर महसूस जरूर कर सकता है ... उनके जाने के बाद उनकी कमी जीवन में हमेशा रहती है ....
आप की गजल पढ़ते हुए अपने पिता याद आ गए...ऐसा लगा जैसे यह गजल हमारे लिए लिखी है आपने।सच तो यह है कि हम कभी भूल ही नही पाते कभी भी....कदम कदम पर उनकी बाते याद आती रहती हैं.....आप ने बहुत भावपूर्ण गजल लिखी है।धन्यवाद।
तेरे होते, किसी दोस्त की कमीं ना थी,
दोस्ती हर दोस्त की, तंग नज़र आती है !
बहुत अच्छी समर्पित रचना.
कुरालिया जी अपने पिता को समर्पित रचना अच्छी लगी। अपने माँ बाप का कर्ज़ हम लोग कभी भी उतार नहीं सकते आज कल तो ऐसे कम ही बेटे हैं जो अपने माँ बाप को ज़िन्दा रहते भी याद करते होँ। स्व़ संत रेआम जी को विनम्र श्रद्धाँजली। आपको बहुत बहुत शुभकामनायें आशीर्वाद
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