दिशा हीन
भीड़ के संग चल पड़े, सब आबोदाना ढूँढ़ते !
अपने अपने हुनर से, जीनें का बहाना ढूँढ़ते !
दर्द की बस्ती है ये ,गम की दुकानें हैं सजी ,
राही भटकते फिर रहे,ख़ुशी का तराना ढूँढ़ते !
आज का सुख भूलकर,कल की चिंता में सभी ,
वक़्त अपना गँवा रहे ,गुज़रा ज़माना ढूँढ़ते !
मेले में तन्हा सभी ,बस भागते ही जा रहे
अपना अपना अलग अलग, आशियाना ढूँढ़ते !
“कुरालीया” हर शय की, फितरत है घूमना ,
फिर रहे सब घूमते, अपना निशाना ढूंढते !
2 comments:
बहुत ही अच्छी रचना।
आभार आदरणीय कहकशां खान जी
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